
- हिंद- चीन के प्रति फ्रांस की औपनिवेशिक योजना क्या थी?
Ans:- फ्रांस की हिंद-चीन के प्रति औपनिवेशिक योजना मुख्य रूप से 19वीं और 20वीं सदी के दौरान एशिया में अपनी उपस्थिति और प्रभुत्व को बढ़ाने के उद्देश्य से विकसित हुई थी। इस योजना का मुख्य हिस्सा “फ्रेंच इंडोचाइना” (French Indochina) के गठन से जुड़ा था, जो 1887 में अस्तित्व में आया। फ्रांस का उद्देश्य क्षेत्रीय आर्थिक संसाधनों का दोहन करना, सांस्कृतिक प्रभाव फैलाना और ब्रिटेन जैसे अन्य साम्राज्यों के खिलाफ सामरिक स्थिति को मजबूत करना था।
फ्रांस की औपनिवेशिक योजना के प्रमुख बिंदु:
विपरीत प्रतिक्रिया: फ्रांस की औपनिवेशिक नीतियों के खिलाफ हिंद-चीन की स्थानीय जनसंख्या से लगातार विद्रोह और विरोध हुआ। विशेष रूप से वियतनाम में, जहां फ्रांसीसी शासन के खिलाफ कई स्वतंत्रता संग्राम और विरोध
आर्थिक शोषण: फ्रांस का हिंद-चीन में प्रमुख उद्देश्य उस क्षेत्र के संसाधनों का शोषण करना था। इसमें रबर, लकड़ी, खनिज, और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की खदानों से लाभ उठाना शामिल था। फ्रांस ने भारतीय उपमहाद्वीप से विशेष रूप से रबर के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन बढ़ाया।
सामरिक महत्व: फ्रांस ने हिंद-चीन में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण जगहों पर क़ब्ज़ा किया, ताकि इसे ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय शक्तियों के खिलाफ एक मजबूत स्थिति मिल सके। फ्रांस का मानना था कि हिंद-चीन में साम्राज्य की स्थापना से वह दक्षिण-पूर्व एशिया और प्रशांत क्षेत्र में अपने सामरिक प्रभाव को बढ़ा सकता है।
सांस्कृतिक प्रभाव: फ्रांस ने अपने फ्रांसीसी सांस्कृतिक मूल्यों और शिक्षा प्रणाली को भारत-चीन क्षेत्र में फैलाने का प्रयास किया। इसका उद्देश्य स्थानीय जनसंख्या को फ्रांसीसी सभ्यता के प्रति आकर्षित करना और उन्हें यूरोपीय सांस्कृतिक दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करना था।
वियतनाम, लाओस और कंबोडिया का अधिग्रहण: फ्रांस ने 19वीं सदी के अंत में वियतनाम, कंबोडिया और लाओस को औपनिवेशिक रूप से अपने नियंत्रण में लिया। इस क्षेत्र को औपचारिक रूप से 1887 में “फ्रांसीसी हिंद-चीन” के रूप में संगठित किया गया। फ्रांस ने इन देशों में अपनी सरकार स्थापित की और स्थानीय प्रशासन को नियंत्रित किया।
2. साइमन कमीशन का उदेश्य क्या था ?
Ans:- साइमन कमीशन (Simon Commission) का गठन ब्रिटिश सरकार ने 1927 में किया था। इसका उद्देश्य भारतीय संविधान में सुधारों की संभावना का अध्ययन करना और इस संदर्भ में एक रिपोर्ट तैयार करना था। साइमन कमीशन का नाम जॉन साइमन (John Simon), जो एक ब्रिटिश राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी थे, के नाम पर रखा गया था।
साइमन कमीशन के प्रमुख उद्देश्य:
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्थिति का मूल्यांकन:
साइमन कमीशन का एक और उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में स्थिति का मूल्यांकन करना था। इस समय तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम काफी सक्रिय हो चुका था, और ब्रिटिश सरकार को इस स्थिति को समझने की आवश्यकता थी।
भारतीय संविधान में सुधार:
ब्रिटिश सरकार ने इस कमीशन को भारत में संविधानिक सुधारों की स्थिति का आकलन करने और भारतीय राजनीति और प्रशासन के ढांचे में बदलाव की आवश्यकता पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए भेजा था। इसका उद्देश्य यह तय करना था कि भारतीय प्रांतों में केंद्रीय और प्रांतीय शासन के बीच शक्ति का वितरण कैसे किया जाए।
ब्रिटिश शासन को मजबूत करना:
साइमन कमीशन के गठन का एक और उद्देश्य भारतीय राजनीति और प्रशासन में ब्रिटिश नियंत्रण को बनाए रखना था। ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि वह भारतीय नेताओं से बिना सलाह के ही सुधारों की दिशा तय करें।
3. हस्तक्षेप का नीति क्या है?
Ans:- स्तक्षेप की नीति (Doctrine of Intervention) एक अंतरराष्ट्रीय राजनीति का सिद्धांत है, जो यह कहता है कि एक राज्य दूसरे राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है यदि वह किसी अन्य राज्य या अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए खतरे का कारण बन रहा हो। इस नीति का उद्देश्य किसी देश में हो रहे गंभीर घटनाओं (जैसे युद्ध, जनसंहार, अधिकारों का उल्लंघन आदि) को रोकने के लिए दूसरे देशों का हस्तक्षेप करना होता है।
हस्तक्षेप की नीति का इतिहास मुख्य रूप से यूरोपीय राजनैतिक संदर्भ से जुड़ा हुआ है और यह विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समझौतों और सिद्धांतों के तहत विकसित हुई।
4. जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क की भूमिका का वर्णन करें
Ans:- ओटो वॉन बिस्मार्क (Otto von Bismarck) जर्मनी के एकीकरण में एक महत्वपूर्ण और केंद्रीय भूमिका निभाने वाले नेता थे। बिस्मार्क ने 19वीं सदी के मध्य में जर्मन राज्य व्यवस्था को एकजुट करने के लिए अपने कूटनीतिक कौशल, सैन्य शक्ति और राजनीतिक रणनीतियों का कुशलता से उपयोग किया। उनका उद्देश्य एक एकीकृत जर्मनी बनाना था, जो एक शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्र बन सके। उन्होंने इस प्रक्रिया को एक योजना के तहत और रणनीतिक कदमों से पूरा किया।
बिस्मार्क का जर्मनी के एकीकरण में योगदान:
1. प्रुसिया के प्रधान मंत्री के रूप में कार्यकाल (1862-1890):
बिस्मार्क ने 1862 में प्रुसिया के प्रधान मंत्री के रूप में कार्यभार संभाला। उनके नेतृत्व में, प्रुसिया ने जर्मन राज्यों में एकजुटता की दिशा में निर्णायक कदम उठाए। उन्होंने प्रुसिया को एक सैन्य शक्ति के रूप में तैयार किया और अपने कूटनीतिक और सैन्य कौशल का उपयोग किया।
2. जर्मन राज्यों के बीच राजनीतिक एकजुटता:
बिस्मार्क ने यह सुनिश्चित किया कि जर्मनी के छोटे-छोटे राज्यों को एकजुट करने के लिए, सबसे पहले प्रुसिया को एक केंद्रीय शक्ति के रूप में स्थापित किया जाए। इसके लिए उन्होंने जर्मन संघ (German Confederation) में सुधारों का प्रस्ताव किया और धीरे-धीरे प्रुसिया के प्रभुत्व को मजबूत किया।
3. डेनिश युद्ध (1864):
बिस्मार्क ने डेनमार्क के साथ युद्ध (1864) में भाग लिया और डेनमार्क को हराया। इस युद्ध में प्रुसिया और ऑस्ट्रिया ने मिलकर डेनमार्क से श्लेस्विग और होल्स्टीन (Schleswig-Holstein) क्षेत्र जीते। हालांकि, बिस्मार्क ने इसमें एक चालाकी दिखाई, क्योंकि उन्होंने ऑस्ट्रिया को भी युद्ध में शामिल किया, ताकि भविष्य में ऑस्ट्रिया के साथ एक बड़ा संघर्ष उत्पन्न किया जा सके।
4. ऑस्ट्रो-प्रुसियाई युद्ध (1866):
1866 में बिस्मार्क ने ऑस्ट्रो-प्रुसियाई युद्ध को सफलतापूर्वक लड़ा, जिसमें उन्होंने ऑस्ट्रिया को पराजित किया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप, बिस्मार्क ने ऑस्ट्रिया को जर्मन संघ से बाहर कर दिया और उत्तर जर्मन संघ (North German Confederation) का गठन किया, जिसमें 22 जर्मन राज्य शामिल थे, जिनमें प्रुसिया प्रमुख था। यह संघ जर्मनी के एकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
5. फ्रेंको-प्रुसियाई युद्ध (1870-71):
यह युद्ध जर्मनी के एकीकरण के लिए निर्णायक था। बिस्मार्क ने फ्रांस के खिलाफ युद्ध का माहौल तैयार किया। उन्होंने फ्रांस को युद्ध के लिए उकसाया और 1870 में फ्रेंको-प्रुसियाई युद्ध शुरू किया। इस युद्ध में प्रुसिया की जीत ने न केवल फ्रांस को पराजित किया, बल्कि जर्मन राज्यों के बीच एकजुटता को भी बढ़ावा दिया। युद्ध की समाप्ति के बाद, जर्मन साम्राज्य (German Empire) का गठन हुआ, जिसमें सभी जर्मन राज्यों को एक संघ के तहत एकजुट किया गया, और प्रुसिया के किंग विल्हेम I को सम्राट (काइज़र) के रूप में स्थापित किया गया।
5. संवर्ती सुचि के अंतरगत कौन-कौन आता है?
Ans:- संवर्ती सूची (Concurrent List) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत एक सूची है, जिसमें वह विषय आते हैं जिन पर केंद्र और राज्य दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं। यह सूची संविधान की तीसरी अनुसूची में पाई जाती है और इसमें ऐसे विषयों का समावेश होता है जिन पर दोनों सरकारों को अपनी-अपनी शक्तियां और अधिकार प्राप्त होते हैं।
संवर्ती सूची में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण विषय निम्नलिखित हैं:
बैंकिंग और वित्तीय सेवाएँ (Banking and Financial Services)
आपराधिक कानून (Criminal Law)
श्रम और रोजगार (Labor and Employment)
शिक्षा (Education)
स्वास्थ्य (Health)
शहरी और ग्रामीण योजना (Urban and Rural Planning)
संचार और परिवहन (Communication and Transportation)
वाणिज्य और उद्योग (Commerce and Industry)
पर्यावरण और वन संरक्षण (Environment and Forest Conservation)
खगोलशास्त्र और मौसम विज्ञान (Astronomy and Meteorology)
सामाजिक सुरक्षा (Social Security)
6. संघिये व्यवस्था के मूल उद्देष्य क्या है?
Ans:- संघीय व्यवस्था (Federal System) एक प्रशासनिक व्यवस्था है जिसमें सत्ता या अधिकार केंद्र और राज्यों के बीच साझा होते हैं। इसका उद्देश्य विभिन्न स्तरों पर शासन को प्रभावी, समान और संतुलित तरीके से स्थापित करना होता है। संघीय व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित होते हैं:
7. भारत में संघ राज्य संबंध पर टिपण्णी लिखिए
Ans:- भारत में संघ-राज्य संबंध भारतीय संविधान द्वारा निर्धारित किए गए हैं, जो एक संघीय ढांचे पर आधारित है। भारत की संघीय व्यवस्था का उद्देश्य देश के विभिन्न हिस्सों को एकजुट करना और विभिन्न राज्यों को स्वायत्तता प्रदान करना है, जबकि केंद्र को भी पर्याप्त शक्तियाँ दी गई हैं ताकि वह राष्ट्रीय एकता और अखंडता बनाए रख सके। भारतीय संघ-राज्य संबंध की विशेषताएँ और उनकी व्याख्या निम्नलिखित हैं:
1. संविधान द्वारा शक्ति का वितरण
भारत का संविधान केंद्र और राज्य के बीच शक्ति का वितरण निर्धारित करता है। संविधान के सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति का बंटवारा किया गया है:
- केंद्र सूची (Union List): इसमें वो विषय शामिल हैं जिन पर केवल केंद्र सरकार कानून बना सकती है। जैसे, राष्ट्रीय सुरक्षा, रक्षा, विदेश नीति आदि।
- राज्य सूची (State List): इसमें वो विषय शामिल हैं जिन पर केवल राज्य सरकारें कानून बना सकती हैं। जैसे, पुलिस, सार्वजनिक स्वास्थ्य, शैक्षिक संस्थान आदि।
- संविलित सूची (Concurrent List): इसमें वो विषय हैं जिन पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं। जैसे, आपराधिक कानून, शिक्षा, श्रम आदि। यदि केंद्र और राज्य के कानूनों में टकराव हो, तो केंद्र का कानून प्रबल होता है।
2. केंद्र की प्रधानता
भारत में संघीय व्यवस्था के बावजूद, केंद्र सरकार को राज्य सरकारों पर महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त हैं। विशेष रूप से, संविधान में कुछ प्रावधान हैं जो केंद्र को राज्य सरकारों पर नियंत्रण रखने की अनुमति देते हैं:
- धारा 356 (राज्य आपातकाल): यदि राज्य सरकार संविधान के अनुसार काम नहीं कर रही है या राज्य में संविधान की प्रावधानों का उल्लंघन हो रहा है, तो केंद्र सरकार राज्य की विधान सभा को भंग कर सकती है और राष्ट्रपति शासन लागू कर सकती है।
- राज्यपाल का कार्य: प्रत्येक राज्य में राज्यपाल केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है और कई मामलों में राज्यपाल केंद्र सरकार के निर्देशों का पालन करते हैं।
3. वित्तीय संबंध
संघ-राज्य संबंधों में वित्तीय संबंध भी महत्वपूर्ण होते हैं। केंद्र और राज्य दोनों के पास कर वसूलने के अधिकार होते हैं, लेकिन अधिकांश महत्वपूर्ण करों जैसे, आयकर, सीमा शुल्क, और वस्तु एवं सेवा कर (GST) केंद्र सरकार के पास होते हैं। राज्य सरकारों को केंद्र से वित्तीय सहायता प्राप्त होती है, जो राज्य वित्त आयोग और वित्त आयोग द्वारा निर्धारित की जाती है। इसके अतिरिक्त, संघीय वित्तीय आयोग राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों के वितरण को नियंत्रित करता है।
4. केंद्र-राज्य विवाद और न्यायपालिका
केंद्र और राज्य के बीच अधिकारों का विवाद कभी-कभी उत्पन्न होता है। इन विवादों का समाधान भारतीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय भारतीय संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करता है और केंद्र और राज्य के बीच अधिकारों के विवाद को सुलझाने का कार्य करता है। न्यायपालिका के अधिकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि यह संघीय व्यवस्था की स्थिरता और संविधान की रक्षा करता है।
5. राज्य की भूमिका और स्वायत्तता
संविधान में राज्य सरकारों को स्वायत्तता प्राप्त है, लेकिन केंद्र के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता भी होती है। राज्यों को अपने क्षेत्रीय विकास, कानून-व्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, और अन्य स्थानीय मुद्दों पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता मिलती है। हालांकि, केंद्रीय योजनाओं और नीतियों के तहत राज्यों को वित्तीय सहायता और दिशा-निर्देश प्राप्त होते हैं, जिससे राज्यों की भूमिका संघीय ढांचे में महत्वपूर्ण हो जाती है।
8. राष्ट्रीय आय की गणना में आने वाली किन्ही 6 कठिनाइयों का वर्णन कीजिए।
Ans:- राष्ट्रीय आय की गणना में कई कठिनाइयाँ होती हैं, क्योंकि यह एक विस्तृत और जटिल प्रक्रिया है जो अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखती है। निम्नलिखित 6 मुख्य कठिनाइयाँ राष्ट्रीय आय की गणना में आती हैं:
1. अवैध गतिविधियों का मूल्यांकन
अक्सर ऐसी गतिविधियाँ होती हैं जो औपचारिक रूप से दर्ज नहीं होतीं, जैसे कि काले बाजार में होने वाले लेन-देन या अवैध व्यापार (जैसे तस्करी, जुए, या ड्रग्स का व्यापार)। इन गतिविधियों का मूल्यांकन करना कठिन होता है, और इसके कारण राष्ट्रीय आय का सटीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
2. घरेलू कामकाजी गतिविधियाँ (Unpaid Domestic Work)
घरेलू कार्य जैसे बच्चों की देखभाल, खाना पकाना, सफाई, बुजुर्गों की देखभाल आदि को बाजार में मूल्यांकित नहीं किया जाता। हालांकि यह कार्य समाज और अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इनका मूल्यांकन राष्ट्रीय आय में नहीं किया जा सकता, जिससे राष्ट्रीय आय का वास्तविक आंकड़ा प्रभावित होता है।
9. मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) क्या है?
Ans:- मानव विकास सूचकांक (Human Development Index – HDI) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा विकसित एक संख्यात्मक माप है, जो किसी देश या क्षेत्र में जीवन स्तर, स्वास्थ्य और शिक्षा की समग्र स्थिति को मापता है।
10. साख पत्र क्या होता है ?
Ans:- साख पत्र एक ऐसा दस्तावेज है जो किसी वित्तीय संस्थान द्वारा जारी किया जाता है, जिसका उपयोग मुख्यतः व्यापारिक वित्त (trade finance) में हुआ करता है जो कि आम तौर पर अपरिवर्तनीय भुगतान मुहैया करता है। ग्राहक और विक्रेता के बीच के अनुबंध की समाप्ति के बाद ग्राहक का बैंक विक्रेता को एक साख पत्र प्रदान करता है।
11.हरित क्रांति से आप क्या समझते हैं ?
Ans:- हरित क्रांति (Green Revolution) कृषि के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था, जो मुख्य रूप से 1960 के दशक में शुरू हुआ और विशेष रूप से विकासशील देशों, जैसे भारत, में खाद्य उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि का कारण बना। यह क्रांति नए कृषि तकनीकों, उन्नत बीजों, उर्वरकों, कीटनाशकों, और सिंचाई सुविधाओं के उपयोग से संबंधित थी।
12.मृदा निर्माण में सहायक कारकों का उल्लेख कीजिए।
Ans:- मृदा निर्माण (Soil Formation) एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसमें विभिन्न प्राकृतिक कारक और जीवों का योगदान होता है। यह प्रक्रिया लाखों वर्षों में होती है, और इसमें कई कारक सम्मिलित होते हैं जो मृदा की संरचना, गुण और गुणवत्ता निर्धारित करते हैं। मृदा निर्माण में सहायक कारकों का उल्लेख निम्नलिखित है:
1. चट्टान (Parent Material)
- मृदा निर्माण का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारक चट्टान या मातृ सामग्री (Parent Material) है। यह चट्टान वह मूल पदार्थ है जो मृदा के निर्माण में योगदान करता है। जब चट्टान का अपरदन (weathering) होता है, तो वह छोटे-छोटे कणों में टूटकर मृदा के रूप में परिवर्तित हो जाता है। चट्टान के प्रकार और संरचना से मृदा की गुणवत्ता प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, बेसाल्ट चट्टान से बनने वाली मृदा में अधिक लौह (iron) और मैग्नीशियम (magnesium) होते हैं।
2. जलवायु (Climate)
- जलवायु मृदा निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उच्च तापमान और अधिक वर्षा के कारण अपरदन की प्रक्रिया तेज होती है, जिससे मृदा का निर्माण शीघ्र होता है। विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में मृदा के प्रकार अलग-अलग होते हैं। जैसे, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में गहरी, काली और उपजाऊ मृदा होती है, जबकि शुष्क क्षेत्रों में शुष्क और हल्की मृदा होती है।
3. जीवों का योगदान (Organisms)
- जीवों जैसे पौधे, जानवर, सूक्ष्मजीव और मनुष्य मृदा निर्माण में सहायक होते हैं।
- पौधे: पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से चट्टान को तोड़ते हैं और मृदा में कार्बनिक पदार्थ (organic matter) जोड़ते हैं।
- जानवर: विभिन्न जानवर जैसे कीड़े, कीट, और अन्य छोटे जीव मृदा में रहते हैं, जिससे मृदा का मिश्रण और उसकी वायुपरिवर्तनशीलता (aeration) बढ़ती है।
- सूक्ष्मजीव: बैक्टीरिया, फफूंद (fungi) और अन्य सूक्ष्मजीव कार्बनिक पदार्थों को विघटित करते हैं और पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण (nutrient recycling) करते हैं, जो मृदा की उर्वरता बढ़ाते हैं।
4. समय (Time)
- मृदा निर्माण एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है, जो हजारों या लाखों वर्षों में होती है। समय के साथ-साथ चट्टानों का अपरदन होता है और मृदा की परतें बनती हैं। समय के साथ मृदा में सूक्ष्मजीवों, जीवों, और कार्बनिक पदार्थों का मिश्रण होता है, जो मृदा की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। जितना अधिक समय होता है, मृदा उतनी अधिक उर्वर और समृद्ध बनती है।
5. ढलान या स्थलाकृति (Topography)
- स्थलाकृति या ढलान मृदा के निर्माण में अहम भूमिका निभाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में मृदा का निर्माण धीमा होता है, क्योंकि पानी का बहाव अधिक होता है और मृदा का अपरदन तेजी से होता है। वहीं, समतल भूमि पर मृदा निर्माण अधिक होता है, क्योंकि वहां पानी का संचय होता है और मृदा का क्षरण कम होता है।
6. मानव गतिविधियाँ (Human Activities)
मनुष्य भी मृदा निर्माण में हस्तक्षेप कर सकता है, जैसे कृषि कार्य, वनस्पति का सफाया, और भवन निर्माण। हालांकि, मानव गतिविधियाँ मृदा के क्षरण और उर्वरता के नुकसान का कारण बन सकती हैं, यदि सही तरीके से प्रबंधन न किया जाए। उदाहरण के लिए, अत्यधिक खेती, वन कटाई, और भूमि का अत्यधिक उपयोग मृदा के क्षरण का कारण बन सकते हैं।
13. नदी घाटी परियोजना के प्रमुख उद्देश्य क्या है?
Ans:- नदी घाटी परियोजना (River Valley Project) का उद्देश्य नदी घाटियों के संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करना और यह सुनिश्चित करना है कि इन संसाधनों का प्रभावी ढंग से प्रबंधन किया जाए ताकि प्राकृतिक आपदाओं को नियंत्रित किया जा सके और क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा मिल सके। इन परियोजनाओं का मुख्य ध्यान जलसंसाधन प्रबंधन, सिंचाई, विद्युत उत्पादन, बाढ़ नियंत्रण, और जल परिवहन जैसी गतिविधियों पर होता है। भारत में ऐसी कई नदी घाटी परियोजनाएँ बनाई गई हैं, जैसे सोन नदी घाटी परियोजना, नर्मदा घाटी परियोजना, और गोदावरी घाटी परियोजना।
नदी घाटी परियोजना के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
1. सिंचाई की सुविधा प्रदान करना
- नदी घाटी परियोजना का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य कृषि के लिए सिंचाई की सुविधा प्रदान करना है। सिंचाई के लिए जल संग्रहित करने के लिए डेम्स और बाँध बनाए जाते हैं, जिससे किसानों को मौसम पर निर्भरता कम होती है और फसलों की पैदावार में वृद्धि होती है। यह विशेष रूप से सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए अत्यधिक लाभकारी है।
2. बाढ़ नियंत्रण
- नदी घाटियों में बाढ़ के खतरे को नियंत्रित करने के लिए बाँध और जलाशय बनाए जाते हैं। ये संरचनाएँ बाढ़ के पानी को संग्रहित करने में मदद करती हैं और इसे धीरे-धीरे नदियों में छोड़कर बाढ़ की स्थिति को नियंत्रित करती हैं, जिससे जीवन और संपत्ति की सुरक्षा होती है।
3. विद्युत उत्पादन
- नदी घाटी परियोजना के तहत जल विद्युत उत्पादन (hydroelectric power generation) की सुविधा भी होती है। बांधों के माध्यम से पानी का संग्रहण करके उसे टर्बाइनों के माध्यम से विद्युत उत्पादन के लिए उपयोग किया जाता है, जिससे न केवल ऊर्जा की आवश्यकता पूरी होती है, बल्कि यह एक पर्यावरणीय रूप से स्वच्छ ऊर्जा स्रोत भी है।
4. जल आपूर्ति
- नदी घाटी परियोजनाओं का एक उद्देश्य क्षेत्रों को सुरक्षित जल आपूर्ति सुनिश्चित करना भी होता है। जलाशयों के निर्माण से घरेलू उपयोग, उद्योगों और शहरी क्षेत्रों के लिए जल आपूर्ति की स्थिरता बढ़ती है।
5. नौवहन और परिवहन
नदी घाटी परियोजना में नदियों का उपयोग जल परिवहन के लिए भी किया जाता है। नदियों के माध्यम से माल ढुलाई करने से सड़क परिवहन पर दबाव कम होता है और वाणिज्यिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है।
14. सामान्य संचार व्यवस्था के बाधित होने के प्रमुख कारणों को लिखिए।
Ans:-सामान्य संचार व्यवस्था के बाधित होने के प्रमुख कारण विभिन्न परिस्थितियों और घटनाओं के कारण हो सकते हैं, जो संचार नेटवर्क या माध्यमों को अस्थिर या प्रभावित कर देते हैं। इन कारणों में प्राकृतिक, मानवीय और तकनीकी कारण शामिल होते हैं। प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
1. प्राकृतिक आपदाएँ
- भूकंप: भूकंप से सड़कों, पुलों, टावरों और संचार उपकरणों को नुकसान पहुँचता है, जिससे संचार की व्यवस्था बाधित हो जाती है।
- बाढ़: बाढ़ से कई इलाकों में सड़कें और संचार नेटवर्क पानी में डूब सकते हैं, जिससे मोबाइल, टेलीफोन और इंटरनेट सेवाएँ प्रभावित होती हैं।
- तूफान और चक्रवात: तूफान और चक्रवात के दौरान उच्च हवाएँ और बारिश के कारण बिजली के खंभे, संचार के टावर और तार गिर सकते हैं, जिससे संचार सेवाओं का विघटन हो सकता है।
- सुनामी: सुनामी के कारण तटीय क्षेत्रों में संचार उपकरणों और बुनियादी ढांचे का भारी नुकसान होता है।
2. युद्ध और आतंकवादी घटनाएँ
- सैन्य संघर्ष: युद्ध या सैन्य संघर्षों के दौरान, संचार केंद्रों को लक्षित किया जा सकता है, जिससे टेलीफोन, इंटरनेट, और रेडियो जैसी संचार सेवाओं को नष्ट किया जा सकता है।
- आतंकवादी हमले: आतंकवादी हमले, जैसे बम विस्फोट या साइबर हमलों द्वारा संचार केंद्रों को नुकसान पहुँचाना, संचार व्यवस्था में बड़ी बाधा उत्पन्न कर सकता है।
3. सामाजिक और राजनीतिक घटनाएँ
- हड़तालें और विरोध प्रदर्शन: जब श्रमिक वर्ग या किसी अन्य समूह द्वारा हड़ताल या विरोध प्रदर्शन किया जाता है, तो यह संचार नेटवर्क और बुनियादी सेवाओं को प्रभावित कर सकता है, विशेष रूप से यदि कर्मचारी या तकनीकी लोग काम करने से मना करें।
- राजनीतिक अस्थिरता: सरकार द्वारा इंटरनेट या टेलीफोन सेवाओं पर रोक लगाना, जैसे इंटरनेट शटडाउन, राजनीति के कारण भी संचार बाधित हो सकता है।
4. प्रौद्योगिकी में विफलता
- सिस्टम की विफलता: कंप्यूटर सर्वर, नेटवर्क और संचार उपकरणों की तकनीकी खराबी, जैसे सॉफ़्टवेयर बग या हार्डवेयर की विफलता, संचार व्यवस्था को प्रभावित कर सकती है।
- नेटवर्क ट्रैफिक का बढ़ना: अत्यधिक ट्रैफिक, विशेष रूप से इमरजेंसी की स्थिति में, इंटरनेट और फोन नेटवर्क को धीमा कर सकता है या पूरी तरह से बंद कर सकता है।
5. प्राकृतिक संसाधनों की कमी
संचार बुनियादी ढांचे की कमी: कुछ दूरदराज और दुर्गम क्षेत्रों में संचार नेटवर्क की कमी या पर्याप्त संचार उपकरणों का अभाव संचार व्यवस्था में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
बिजली की कमी: संचार के लिए आवश्यक ऊर्जा स्रोतों की कमी (जैसे पावर कट या पावर आउटेज) संचार उपकरणों के संचालन को प्रभावित कर सकती है।
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